Wednesday, October 29, 2008

वासना में लिपटा भाव प्यार नहीं कहलाता-हिन्दी शायरी

किसी के ख्यालों में खो जाना
किसी के वादों में बहकना
किसी के इरादों के साथ बह जाना
क्या कहलाता है प्यार
जिसमें कुछ पल का भटकने की
सजा भी मिल सकती है
जिन्दगी में हर कदम पर बारंबार
कोई एक पहचान खोये
दूसरा उस पर थोपे अपना नाम
बराबरी की शर्त पूरी
नहीं करता ऐसा प्यार
एक खेलता है
दूसरा देखता है
वासना में लिपटा बदन मचले
कहलाता नहीं प्यार
दिल में भोगने की चाहत पूरी करना
जिस्म में जलती आग बुझाना तो
सभी चाहते हैं
पर त्याग और यकीन पर खरे उतरें
कुछ पाने की चाह न हो
तभी कहलाता है प्यार

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Sunday, October 26, 2008

फैसला नये ज़माने के साथ चलने का-हास्य व्यंग्य कविता

समाज के ठेकेदारों की
पड़ती जा रही थी छबि फीकी
उन्होने तय किया
फैसला नये ज़माने के साथ चलने का
अपने तौर तरीकों को बदलने का

पहले लोग घर के झगडों की
पंचायत कराने आते थे
अब अदालतों में जाने लगे थे
उन्होने तरीका यह सोचकर बदला कि अब
लोग लोगों के आने का इन्तजार नहीं करेंगे
ऐसे मुद्दे उछालेंगे कि लोग
आपस में पहले से ज्यादा लड़ेंगे
फिर प्रस्ताव रखेंगे उनके सामने
आपस में समझौते करने का
उनकी योजना काम आयी
उनके पास अब रोज आते हैं
अवसर शांति के प्रवर्तक बनने का
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Tuesday, October 21, 2008

मुफ्त में जुर्म सहती जाना-हास्य कविता

सास ने बहू से कहा
'तुम्हें आज मायके जाने की अनुमति
पर शाम ढलने से पहले घर लौट आना
तेरे ससुर और पति से तेरे जाने की
ख़बर छुपाये रखूँगी
उनके आने से पहले नहीं आई
तो दोनों नाराज होंगे
पडेगा तुम्हें पछताना
हाँ, मेरे लिए कोई तोहफा
जरूर लाना'
बहू बिचारी शाम से पहले वापस आयी
साथ में सास के लिए साड़ी भी लाई
पर सास को साड़ी पसंद नही आयी
और जोर से किया चिल्लाना शुरू
'कैसे कंगाल घर की हैं
इतनी सस्ती साड़ी लाई
ज़रा भी शर्म नहीं आयी
पता नहीं कौनसे मुहूर्त में
इसका रिश्ता अपने बेटे के लिए माना'

बेटा और पति के घर लौटने तक
उसने मचा रखा कोहराम
नहीं करने दिया बहु को आराम
घर में उनके घुसते उसने
उनको दी शिकायत
बहु को कोसने में नहीं की किफायत
ससुर ने बहु से कहा
'बेटी नए जमाने की हो
पर बदला नहीं है ज़माना
तुमने अभी सास-बहु के
रिश्ते को नहीं जाना
कभी तुम सास को खुश नहीं कर सकती
चाहे लाख जतन कर लो
इसलिए कभी सास के लिए कुछ नहीं लाना
अपने पिता का खर्चा करा कर भी झेलने से
तो अच्छा है मुफ्त में सास के जुर्म सहती जाना'
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Sunday, October 12, 2008

जुबान का खेल है यह ज़िन्दगी-व्यंग्य कविता

तुम्हारे मुख से निकले कुछ
प्रशंसा के कुछ शब्द
किस तरह लुभा जाते हैं
जो तुम्हे करते हैं नापसंद
वही तुम्हारे प्रशंसक हो जाते

जुबान का खेल है यह जिन्दगी
कर्ण प्रिय और कटु शब्दों से
ही रास्ते तय हो पाते हैं
जो उगलते हैं जहर अपने लफ्जों से
वह अपने को धुप में खडे पाते
जिनकी बातों में है मिठास
वही दोस्ती और प्यार का
इम्तहान पास कर
सुख की छाया में बैठ पाते

जिन्होंने नहीं सीखा लफ्जों में
प्यार का अमृत घोलना
रूखा है जिनका बोलना
वह हमेशा रास्ते भटक जाते
उनके हमसफर भी अपने
हमदर्द नहीं बन पाते हैं
चुनते हैं भाषा से शब्दों को
फूल की तरह
लुटाते हैं लोगों पर अपनों की तरह
गैरों से भी वह हमदर्दी पाते
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Saturday, October 11, 2008

अंतर्जाल पर पाठ चुराने वाले हैकर भी कम नहीं होंगे-आलेख

पता नहीं वह ब्लागर कभी कभी दिखता है पर उसकी सलाह को कभी नहीं भूल सकता। उसने हैकरों से लड़ने का जो सुझाव दिया वह बहुत दिलचस्प रहा।
उसने कहा था कि मुझे अपने पाठ में उस हैकर के लिये अभद्र शब्द लिख कर एक पाठ डालना चाहिये और फिर उस पाठ को हटा देना चाहिये या फिर उसकी वेबसाइट को चोर बताते एक पाठ लिखना चाहिये। उसे धमकाना चाहिये। आदि आदि।

इधर कई दिनों से देख रहा था कई लोग मुफ्त का माल समझकर मेरे पाठों को उठाये जा रहे थे। कहना यह चाहिये कि उन्होंने अपने साफ्टवेयर इस तरह बनाये हैं कि वह एक जाल बन गये हैं और जब हम अपना पाठ प्रकाशित करते हैं तो वह एक अंतरिक्ष में अपने शब्दों के साथ उठ रहा पाठ पंछी की तरह उनके इस जाल में फंस जाता है। बहरहाल उस ब्लागर की बात ने मेरे दिमाग में एक विचार घुसा दिया। मैंने अपने पाठ में अपने उस ब्लाग/पत्रिका के साथ अन्य ब्लाग/पत्रिका के पते भी लगाना शुरु दिये। वह मेरे पाठ का इस तरह हिस्सा था कि उनकी वेबसाइट पर अगर कोई मेरा पाठ खोलेगा तो मेरा नाम और ब्लाग/पत्रिका भी दिखाई देती है और कोई चाहे तो उनको खोल भी सकता है। जब से इस तरह अपने ब्लाग/पत्रिका के पते देने शुरु किये हैं तब से अब पाठ चोरी होना एक तरह से बंद हो गया है।

सबसे बढि़या बात यह है कि मैंने अपना नाम ब्लाग/पत्रिकाओं के साथ अनजाने में जोड़ा थे पर अब उनका लाभ यह दिखाई दे रहा है कि अंतर्जाल के यह हैकर उससे बचना चाहते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि अपनी टिप्पणियों में ब्लाग/पत्रिकाओं में लिख जाते हैं कि प्रसिद्ध ब्लागर हूं-यह मजाक में वह लिखते हैं पर लगता है कि हैकरो ने यह पढ़ा है और इसी डर के कारण अब ऐसी शिकायतें कम हो गयीं हैं।
इन हैकरों ने लव,फ्रेंडस,विकिपीडिया और हिंदी और अन्य अनेक आकर्षक नाम लिखकर अपने वेबसाइट बनायी है। डोमेन पर पैसा खर्च किया पर लिखने के नाम पर पैदल हैं! वह अंतर्जाल पर हिंदी के वैसे ही प्रकाशक बनना चाहते हैं जैसे कि बाहर हैं। उनको लगता है कि ब्लाग लेखक तो एक मजदूर है वैसा ही जैसे कि बाहर होते हैं। यह उनका भ्रम है। अंतर्जाल पर सब वैसा नहीं चलेगा जैसा कि बाहर चल रहा है। वह पाठ लेना चाहते हैं पर नाम नहीं दिखे ऐसा इंतजाम कर लेते हैं तब गुस्सा आना स्वाभाविक है।

एक ब्लाग पर मैं विकिपीडिया का नाम देखकर तो हैरान हो गया और इधर मैं सोच रहा था कि इसकी शिकायत अपने मित्रों से करूं पर मेरी अपनी तकनीकी चालाकी की वजह से वह ब्लाग/वेबसाइट फिर मेरा पाठ लेने नहीं आया। हालांकि उसका लिंक अभी भी मेरे ब्लाग/पत्रिका पर दिख रहा है। हैकरी देखिये कि कोई और लिखे और हम उसका लाभ मुफ्त में उठायें।

इन हैकरों से जूझना भी एक अलग तरह का अनुभव है। कुछ लोगों को मेरे ब्लाग/पत्रिकाओं पर इस तरह अनेक ब्लाग/पत्रिकाओं का पता देखकर हैरानी होती होगी उनको यह बता दूं कि यह केवल हैकरों से मुकाबला करने के लिये है। ऐसे हैकर जो लेखक का न नाम देना चाहते हैं और न नामा! आगे ऐसे हैकरों की संख्या और बढ़ेगी क्योंकि हिंदी में कई लोग अपने अंदर प्रकाशक होने का भ्रम पाल का डौमेन खरीद रहे हैं और ब्लाग के बारे में उनको लगा रहा है कि वह फ्री के हैं और लेखक तो उनकी नजर में फ्री के होते हैं।

इधर मैंने तय कर लिया है कि हिंदी की आधिकारिक साईटों पर ही जाना ठीक रहेगा। किसी समस्या के लिये ब्लाग लेखक मित्रों से पूछना ही ठीक है क्योंकि अंतर्जाल के बारे में अब वह जितना जानते हैं उतना शायद ही कोई जानता हो। इन हैकरों के बारे में उनसे जानकारी मिली तभी मैंने पाया कि कई ऐसे हैकर हैं जो मेरे पाठ ले जा रहे हैं। यहां यह बात बता दूं कि ब्लाग फ्री के जरूर हैं पर उस पर लिखा गया पाठ फ्री का नहीं होता। लेखक भले ही बैठकर लिखता है और उसका वहां भी पसीना बहता है।
कुछ लोग कहते हैं कि अंतर्जाल पर चोरी रोकने के लिये कानून होना चाहिये। यह बात सही है पर ऐसे हैकरों को बता दूं अनेक ऐसे भी कानून हैं जो उनको अपनी इन मूर्खताओं के लिये संकट में डाल सकते हैं।
डौमेन लेने वाले भी चेत जायें। कम से कम जहां मेरा नाम देखें तो अपने यहां से पाठ हटा लें। अगर मेरा पाठ लेते हैं तो मुझे पूर्व सूचना दें। मेरे पाठ केवल मेरे ब्लाग मित्र और हिंदी के ब्लाग दिखाने वाले चार फोरम ही दिखा सकते हैं क्योंकि यह मैंने तय किया है-अन्य का मामला मेरे विचाराधीन है। वैसे मुझे अपने लिखे से न तो पैसे की आशा है न ही अभी ऐसी कोई उत्सुकता है। भगवान का दिया सब कुछ है और सबसे बड़ी बात यह है कि सरस्वती मां की कृपा है पर अन्य ब्लाग लेखक मित्रों का परिश्रम व्यर्थ आते देख मेरा खून खौल उठता है तब प्रतिकार करने का मन होता है। सीधी बात यह है कि अगर आप अपनी वेबसाइट या ब्लाग पर इस तरह दिखाते हैं कि मेरा नाम नहीं दिखता तो इसका मतलब है कि आपकी नीयत ठीक नहीं है और उसका प्रतिकार आपको कभी भी झेलना पड़ सकता है।
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Wednesday, October 8, 2008

नहीं तो आपकी कंपनी हो जायेगी फेल-हिन्दी शायरी

परेशान निर्माती ने पूछा
अपने प्रचार विशेषज्ञ से के
'सास बहू के धारावाहिक अब
क्यों हो रहे हैं फ्लॉप
अच्छी खबरें नहीं आ रहीं
हमारे धंधे के बारे में
प्रायोजक छोड़ रहे हैं साथ
खतरे में पड़ जायेगी सबकी कमाई
अपने ज्ञान से पता करो आप'

सुनकर बोला प्रचार विशेषज्ञ
'अब तो असली आतंक की
खबरें ही पा रहीं है सब जगह टॉप
आपके धारावाहिक की सासें तो
दिखाती हैं नकल क्रूरता
धमाकों के असली दृश्य टीवी पर देखकर
हर दर्शक दहल जाता है
उसका दिल भी बहल जाता है
हर टीवी चैनल लगा है
उसे भुनाने में
कौन देखेगा अब ऐसे रक्तहीन धारावाहिक
जब आपके कार्यक्रमों के शोर
धमाकों की आवाज में दब जाता हो
हर रोज ऐसा मंजर सामने आता हो
बम कहीं फटता हो
पर चैनल वाले दृश्य के साथ
अपनी असली धमाके की आवाज जोड़कर
आदमी को हिला देते हैं
अब आप भी बंद कर दो
यह सास बहू का खेल
आतंक का कार्यक्रम दो ठेल
आजकल बाज़ार में उसी की है सेल'
नहीं तो हो जायेगी आपकी कंपनी फेल
मैंने पहले ही बता दिया
फिर मुझे दोष न देना आप

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Saturday, October 4, 2008

दूसरों पर फब्तियां कसने लग जाते हैं-हिंदी शायरी

आम इंसानों की तरह
रोज जिंदगी गुजारते हैं
पर आ जाता है
पर सर्वशक्तिमान के दलाल
जब देते हैं संदेश
अपना ईमान बचाने का
तब सब भूल जाते हैं
दिल से इबादत तो
कम ही करते हैं लोग
पर उसके नाम पर
जंग करने उतर आते हैं
कौन कहता है कि
दुनियां के सारे धर्म
इंसान को इंसान की
तरह रहना सिखाते
ढेर सारी किताबों को
दिल से इज्जत देने की बात तो
सभी यहां करते हैं
पर उनमें लिखे शब्द कितना पढ़ पाते हैं
पढ़कर कितना समझते
इस पर बहस कौन करता है
दूसरों की बात पर लोग
एक दूसरे पर फब्तियां कसने लग जाते हैं।
.......................................

<,blockquote>यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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